Monday, December 24, 2007

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Wednesday, December 19, 2007

गीता को समझने मैं बहुत समय लगता है। तीसरा अध्याय

गीता को समझने मैं बहुत समय लगता है। इस लिए ३-४ दिन के बाद नया अध्याय शुरू कर सका हूँ । आशा है कि कोई तो मेरे साथ गीता पढ़ रहा होगा।

तीसरा अध्याय

अर्जुन बोले


ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥३- १॥

हे केशव, अगर आप बुद्धि को कर्म से अधिक मानते हैं तो मुझे इस घोर कर्म में क्यों न्योजित कर रहे हैं ॥


व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव में ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥३- २॥

मिले हुऐ से वाक्यों से मेरी बुद्धि शंकित हो रही है । इसलिये मुझे वह एक रस्ता बताईये जो निष्चित प्रकार से मेरे लिये अच्छा हो ॥


श्रीभगवान बोले


लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥३- ३॥

हे नि़ष्पाप, इस लोक में मेरे द्वारा दो प्रकार की निष्ठाऐं पहले बताई गयीं थीं । ज्ञान योग सन्यास से जुड़े लोगों के लिये और कर्म योग उनके लिये जो कर्म योग से जुड़े हैं ॥


न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥३- ४॥

कर्म का आरम्भ न करने से मनुष्य नैष्कर्म सिद्धी नहीं प्राप्त कर सकता अतः कर्म योग के अभ्यास में कर्मों का करना जरूरी है । और न ही केवल त्याग कर देने से सिद्धी प्राप्त होती है ॥


न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥३- ५॥

कोई भी एक क्षण के लिये भी कर्म किये बिना नहीं बैठ सकता । सब प्रकृति से पैदा हुऐ गुणों से विवश होकर कर्म करते हैं ॥


कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥३- ६॥

कर्म कि इन्द्रीयों को तो रोककर, जो मन ही मन विषयों के बारे में सोचता है उसे मिथ्या अतः ढोंग आचारी कहा जाता है ॥


यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥३- ७॥

हे अर्जुन, जो अपनी इन्द्रीयों और मन को नियमित कर कर्म का आरम्भ करते हैं, कर्म योग का आसरा लेते हुऐ वह कहीं बेहतर हैं ॥


नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ॥३- ८॥

जो तुम्हारा काम है उसे तुम करो क्योंकि कर्म से ही अकर्म पैदा होता है, मतलब कर्म योग द्वारा कर्म करने से ही कर्मों से छुटकारा मिलता है । कर्म किये बिना तो यह शरीर की यात्रा भी संभव नहीं हो सकती । शरीर है तो कर्म तो करना ही पड़ेगा ॥


यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ॥३- ९॥

केवल यज्ञा समझ कर तुम कर्म करो हे कौन्तेय वरना इस लोक में कर्म बन्धन का कारण बनता है । उसी के लिये कर्म करते हुऐ तुम संग से मुक्त रह कर समता से रहो ॥


सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥३- १०॥

यज्ञ के साथ ही बहुत पहले प्रजापति ने प्रजा की सृष्टि की और कहा की इसी प्रकार कर्म यज्ञ करने से तुम बढोगे और इसी से तुम्हारे मन की कामनाऐं पूरी होंगी ॥


देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥३- ११॥

तुम देवताओ को प्रसन्न करो और देवता तुम्हें प्रसन्न करेंगे, इस प्रकार परस्पर एक दूसरे का खयाल रखते तुम परम श्रेय को प्राप्त करोगे ॥


इष्टान्भोगान्हि वह देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ॥३- १२॥

यज्ञों से संतुष्ट हुऐ देवता तुम्हें मन पसंद भोग प्रदान करेंगे । जो उनके दिये हुऐ भोगों को उन्हें दिये बिना खुद ही भोगता है वह चोर है ॥


यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा यह पचन्त्यात्मकारणात् ॥३- १३॥

जो यज्ञ से निकले फल का आनंद लेते हैं वह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं लेकिन जो पापी खुद पचाने को लिये ही पकाते हैं वे पाप के भागीदार बनते हैं ॥


अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥३- १४॥

जीव अनाज से होते हैं । अनाज बिरिश से होता है । और बिरिश यज्ञ से होती है । यज्ञ कर्म से होता है ॥ (यहाँ प्राकृति के चलने को यज्ञ कहा गया है)


कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥३- १५॥

कर्म ब्रह्म से सम्भव होता है और ब्रह्म अक्षर से होता है । इसलिये हर ओर स्थित ब्रह्म सदा ही यज्ञ में स्थापित है ।


एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥३- १६॥

इस तरह चल रहे इस चक्र में जो हिस्सा नहीं लेता, सहायक नहीं होता, अपनी ईन्द्रीयों में डूबा हुआ वह पाप जीवन जीने वाला, व्यर्थ ही, हे पार्थ, जीता है ॥


यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥३- १७॥

लेकिन जो मानव खुद ही में स्थित है, अपने आप में ही तृप्त है, अपने आप में ही सन्तुष्ट है, उस के लिये कोई भी कार्य नहीं बचता ॥


नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥३- १८॥

न उसे कभी किसी काम के होने से कोई मतलब है और न ही न होने से । और न ही वह किसी भी जीव पर किसी भी मतलब के लिये आश्रय लेता है ॥


तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥३- १९॥

इसलिये कर्म से जुड़े बिना सदा अपना कर्म करते हुऐ समता का अचरण करो ॥ बिना जुड़े कर्म का आचरण करने से पुरुष परम को प्राप्त कर लेता है ॥


कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ॥३- २०॥

कर्म के द्वारा ही जनक आदि सिद्धी में स्थापित हुऐ थे । इस लोक समूह, इस संसार के भले के लिये तुम्हें भी कर्म करना चाहिऐ ॥


यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥३- २१॥

क्योंकि जो ऐक श्रेष्ठ पुरुष करता है, दूसरे लोग भी वही करते हैं । वह जो करता है उसी को प्रमाण मान कर अन्य लोग भी पीछे वही करते हैं ॥


न में पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥३- २२॥

हे पार्थ, तीनो लोकों में मेरे लिये कुछ भी करना वाला नहीं है । और न ही कुछ पाने वाला है लेकिन फिर भी मैं कर्म में लगता हूँ ॥


यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥३- २३॥

हे पार्थ, अगर मैं कर्म में नहीं लगूँ तो सभी मनुष्य भी मेरे पीछे वही करने लगेंगे ॥


उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् ।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥३- २४॥

अगर मै कर्म न करूँ तो इन लोकों में तबाही मच जायेगी और मैं इस प्रजा का नाशकर्ता हो जाऊँगा ॥


सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ॥३- २५॥

जैसे अज्ञानी लोग कर्मों से जुड़ कर कर्म करते हैं वैसे ही ज्ञानमन्दों को चाहिये कि कर्म से बिना जुड़े कर्म करें । इस संसार चक्र के लाभ के लिये ही कर्म करें ।


न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥३- २६॥

जो लोग कर्मो के फलों से जुड़े है, कर्मों से जुड़े हैं ज्ञानमंद उनकी बुद्धि को न छेदें । सभी कामों को कर्मयोग बुद्धि से युक्त होकर समता का आचरण करते हुऐ करें ॥


प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥३- २७॥

सभी कर्म प्रकृति में स्थित गुणों द्वारा ही किये जाते हैं । लेकिन अहंकार से विमूढ हुआ मनुष्य स्वय्म को ही कर्ता समझता है ॥


तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥३- २८॥

हे महाबाहो, गुणों और कर्मों के विभागों को सार तक जानने वाला, यह मान कर की गुण ही गुणों से वर्त रहे हैं, जुड़ता नहीं ॥


प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ॥३- २९॥

प्रकृति के गुणों से मूर्ख हुऐ, गुणों के कारण हुऐ उन कर्मों से जुड़े रहते है । सब जानने वाले को चाहिऐ कि वह अधूरे ज्ञान वालों को विचलित न करे ॥


मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥३- ३०॥

सभी कर्मों को मेरे हवाले कर, अध्यात्म में मन को लगाओ । आशाओं से मुक्त होकर, "मै" को भूल कर, बुखार मुक्त होकर युद्ध करो ॥


यह में मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥३- ३१॥

मेरे इस मत को, जो मानव श्रद्धा और बिना दोष निकाले सदा धारण करता है और मानता है, वह कर्मों से मु्क्ती प्राप्त करता है ॥


यह त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति में मतम् ।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥३- ३२॥

जो इसमें दोष निकाल कर मेरे इस मत का पालन नहीं करता, उसे तुम सारे ज्ञान से वंचित, मूर्ख हुआ और नष्ट बुद्धी जानो ॥


सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥३- ३३॥

सब वैसा ही करते है जैसी उनका स्वभाव होता है, चाहे वह ज्ञानवान भी हों । अपने स्वभाव से ही सभी प्राणी होते हैं फिर सयंम से क्या होगा ॥


इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥३- ३४॥

इन्द्रियों के लिये उन के विषयों में खींच और घृणा होती है । इन दोनो के वश में मत आओ क्योंकि यह रस्ते के रुकावट हैं ॥


श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥३- ३५॥

अपना काम ही अच्छा है, चाहे उसमे कमियाँ भी हों, किसी और के अच्छी तरह किये काम से । अपने काम में मृत्यु भी होना अच्छा है, किसी और के काम से चाहे उसमे डर न हो ॥

अर्जुन बोले

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥३- ३६॥

लेकिन, हे वार्ष्णेय, किसके जोर में दबकर पुरुष पाप करता है, अपनी मरजी के बिना भी, जैसे कि बल से उससे पाप करवाया जा रहा हो ॥


श्रीभगवान बोले

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥३- ३७॥

इच्छा और गुस्सा जो रजो गुण से होते हैं, महा विनाशी, महापापी इसे तुम यहाँ दुश्मन जानो ॥


धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च ।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥३- ३८॥

जैसे आग को धूआँ ढक लेता है, शीशे को मिट्टी ढक लेती है, शिशू को गर्भ ढका लेता है, उसी तरह वह इनसे ढका रहता है ॥

(क्या ढका रहता है, अगले श्लोक में है )


आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥३- ३९॥

यह ज्ञान को ढकने वाला ज्ञानमंद पुरुष का सदा वैरी है, इच्छा का रूप लिऐ, हे कौन्तेय, जिसे पूरा करना संभव नहीं ॥


इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥३- ४०॥

इन्द्रीयाँ मन और बुद्धि इसके स्थान कहे जाते हैं । यह देहधिरियों को मूर्ख बना उनके ज्ञान को ढक लेती है ॥


तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥३- ४१॥

इसलिये, हे भरतर्षभ, सबसे पहले तुम अपनी इन्द्रीयों को नियमित करो और इस पापमयी, ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाली इच्छा का त्याग करो ॥


इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥३- ४२॥

इन्द्रीयों को उत्तम कहा जाता है, और इन्द्रीयों से उत्तम मन है, मन से ऊपर बुद्धि है और बुद्धि से ऊपर आत्मा है ॥


एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥३- ४३॥


इस प्रकार स्वयंम को बुद्धि से ऊपर जान कर, स्वयंम को स्वयंम के वश में कर, हे महाबाहो, इस इच्छा रूपी शत्रु, पर जीत प्राप्त कर लो, जिसे जीतना कठिन है ॥



॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥

Thursday, December 13, 2007

ज्ञान गुरु तो भगवान श्री कृष्ण है

ज्ञान गुरु तो भगवान श्री कृष्ण है , मैं तो बस गीता पढ़ रह था और मुझको लगा कि विकिपेडिया पर जो गीता किसी ने लिख दी है , उसको कोई ब्लोग बना कर फेला दिया जाये ! इस बहाने शायद कोई १-२ लोग मेरे साथ - साथ गीता को पढ़ लेंगे। वैसे भी हिन्दी ब्लोग मैं सब अपनी रचनाये बना बना कर पूरे लेखक बने हुई है और गीता तो स्वयं श्री कृष्ण की रचना है!
जय श्री कृष्ण

Wednesday, December 12, 2007

दूसरा अध्याय

संजय बोले

तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥२- १॥

तब चिंता और विशाद में डूबे अर्जुन को, जिसकी आँखों में आँसू भर आऐ थे, मधुसूदन ने यह वाक्य कहे ॥


श्रीभगवान बोले

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥२- २॥

हे अर्जुन, यह तुम किन विचारों में डूब रहे हो जो इस समय गलत हैं और स्वर्ग और कीर्ती के बाधक हैं ॥


क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥२- ३॥

तुम्हारे लिये इस दुर्बलता का साथ लेना ठीक नहीं । इस नीच भाव, हृदय की दुर्बलता, का त्याग करके उठो हे परन्तप ॥


अर्जुन बोले

कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥२- ४॥

हे अरिसूदन, मैं किस प्रकार भीष्म, संख्य और द्रोण से युध करुँगा । वे तो मेरी पूजा के हकदार हैं ॥


गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥२- ५॥

इन महानुभाव गुरुयों की हत्या से तो भीख माँग कर जीना ही बेहतर होगा । इन को मारकर जो भोग हमें प्राप्त होंगे वे सब तो खून से रँगे होंगे ॥


न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम- स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥२- ६॥

हम तो यह भी नहीं जानते की हम जीतेंगे याँ नहीं, और यह भी नहीं की दोनो में से बेहतर क्या है, उनका जीतना या हमारा, क्योंकि जिन्हें मार कर हम जीना भी नहीं चाहेंगे वही धार्तराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़ें हैं ॥


कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥२- ७॥

इस दुख चिंता ने मेरे स्वभाव को छीन लिया है और मेरा मन शंका से घिरकर सही धर्म को नहीं हेख पा रहा है । मैं आप से पूछता हूँ, जो मेरे लिये निष्चित प्रकार से अच्छा हो वही मुझे बताइये ॥ मैं आप का शिष्य हूँ और आप की ही शरण लेता हूँ ॥


न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् ।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥२- ८॥

मुझे नहीं दिखता कैसे इस दुखः का, जो मेरी इन्द्रीयों को सुखा रहा है, अन्त हो सकता है, भले ही मुझे इस भूमी पर अति समृद्ध और शत्रुहीन राज्य यां देवतायों का भी राज्यपद क्यों न मिल जाऐ ॥

संजय बोले

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप ।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥२- ९॥

हृषिकेश, श्री गोविन्द जी को परन्तप अर्जुन, गुडाकेश यह कह कर चुप हो गये कि मैं युध नहीं करुँगा ॥

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ॥२- १०॥

हे भारत, दो सेनाओं के बीच में शोक और दुख से घिरे अर्जुन को प्रसन्नता से हृषीकेश ने यह बोला ॥


श्रीभगवान बोले

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥२- ११॥

जिन के लिये शोक नहीं करना चाहिये उनके लिये तुम शोक कर रहे हो और बोल तुम बुद्धीमानों की तरहँ रहे हो । ज्ञानी लोग न उन के लिये शोक करते है जो चले गऐ और न उन के लिये जो हैं ॥


न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥२- १२॥

न तुम्हारा न मेरा और न ही यह राजा जो दिख रहे हैं इनका कभी नाश होता है ॥ और यह भी नहीं की हम भविष्य मे नहीं रहेंगे ॥

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥२- १३॥

आत्मा जैसे देह के बाल, युवा यां बूढे होने पर भी वैसी ही रहती है उसी प्रकार देह का अन्त होने पर भी वैसी ही रहती है ॥ बुद्धीमान लोग इस पर व्यथित नहीं होते ॥


मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥२- १४॥

हे कौन्तेय, सरदी गरमी सुखः दुखः यह सब तो केवल स्पर्श मात्र हैं । आते जाते रहते हैं, हमेशा नहीं रहते, इन्हें सहन करो, हे भारत ॥


यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥२- १५॥

हे पुरुषर्षभ, वह धीर पुरुष जो इनसे व्यथित नहीं होता, जो दुख और सुख में एक सा रहता है, वह अमरता के लायक हो जाता है ॥


नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥२- १६॥

न असत कभी रहता है और सत न रहे ऐसा हो नहीं सकता । इन होनो की ही असलीयत वह देख चुके हैं जो सार को देखते हैं ॥


अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥२- १७॥

तुम यह जानो कि उसका नाश नहीं किया जा सकता जिसमे यह सब कुछ स्थित है । क्योंकि जो अमर है उसका नाश करना किसी के बस में नहीं ॥


अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥२- १८॥

यह देह तो मरणशील है, लेकिन शरीर में बैठने वाला अन्तहीन कहा जाता है । इस आत्मा का न तो अन्त है और न ही इसका कोई मेल है, इसलिऐ युद्ध करो हे भारत ॥


य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥२- १९॥

जो इसे मारने वाला जानता है या फिर जो इसे मरा मानता है, वह दोनों ही नहीं जानते । यह न मारती है और न मरती है ॥


न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥२- २०॥

यह न कभी पैदा होती है और न कभी मरती है । यह तो अजन्मी, अन्तहीन, शाश्वत और अमर है । सदा से है, कब से है । शरीर के मरने पर भी इसका अन्त नहीं होता ॥


वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥२- २१॥

हे पार्थ, जो पुरुष इसे अविनाशी, अमर और जन्महीन, विकारहीन जानता है, वह किसी को कैसे मार सकता है यां खुद भी कैसे मर सकता है ॥


वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥२- २२॥

जैसे कोई व्यक्ती पुराने कपड़े उतार कर नऐ कपड़े पहनता है, वैसे ही शरीर धारण की हुई आत्मा पुराना शरीर त्याग कर नया शरीर प्राप्त करती है ॥


नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥२- २३॥

न शस्त्र इसे काट सकते हैं और न ही आग इसे जला सकती है । न पानी इसे भिगो सकता है और न ही हवा इसे सुखा सकती है ॥


अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥२- २४॥

यह अछेद्य है, जलाई नहीं जा सकती, भिगोई नहीं जा सकती, सुखाई नहीं जा सकती । यह हमेशा रहने वाली है, हर जगह है, स्थिर है, अन्तहीन है ॥


अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥२- २५॥

यह दिखती नहीं है, न इसे समझा जा सकता है । यह बदलाव से रहित है, ऐसा कहा जाता है । इसलिये इसे ऐसा जान कर तुम्हें शोक नहीं करना चाहिऐ ॥


अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥२- २६॥

हे महाबाहो, अगर तुम इसे बार बार जन्म लेती और बार बार मरती भी मानो, तब भी, तुम्हें शोक नहीं करना चाहिऐ ॥


जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥२- २७॥

क्योंकि जिसने जन्म लिया है, उसका मरना निष्चित है । मरने वाले का जन्म भी तय है । जिसके बारे में कुछ किया नहीं जा सकता उसके बारे तुम्हें शोक नहीं करना चाहिऐ ॥


अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥२- २८॥

हे भारत, जीव शुरू में अव्यक्त, मध्य में व्यक्त और मृत्यु के बाद फिर अव्यक्त हो जाते हैं । इस में दुखी होने की क्या बात है ॥



आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन- माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥२- २९॥

कोई इसे आश्चर्य से देखता है, कोई इसके बारे में आश्चर्य से बताता है, और कोई इसके बारे में आश्चर्यचित होकर सुनता है, लेकिन सुनने के बाद भी कोई इसे नहीं जानता ॥



देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥२- ३०॥

हे भारत, हर देह में जो आत्मा है वह नित्य है, उसका वध नहीं किया जा सकता । इसलिये किसी भी जीव के लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये ॥


स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥२- ३१॥

अपने खुद के धर्म से तुम्हें हिलना नहीं चाहिये क्योंकि न्याय के लिये किये गये युद्ध से बढकर ऐक क्षत्रीय के लिये कुछ नहीं है ॥



यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥२- ३२॥

हे पार्थ, सुखी हैं वे क्षत्रिय जिन्हें ऐसा युद्ध मिलता है जो स्वयंम ही आया हो और स्वर्ग का खुला दरवाजा हो ॥



अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥२- ३३॥

लेकिन यदि तुम यह न्याय युद्ध नहीं करोगे, को अपने धर्म और यश की हानि करोगे और पाप प्राप्त करोगे ॥



अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ॥२- ३४॥

तुम्हारे अन्तहीन अपयश की लोग बातें करेंगे । ऐसी अकीर्ती एक प्रतीष्ठित मनुष्य के लिये मृत्यु से भी बढ कर है ॥



भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥२- ३५॥

महारथी योद्धा तुम्हें युद्ध के भय से भागा समझेंगें । जिनके मत में तुम ऊँचे हो, उन्हीं की नजरों में गिर जाओगे ॥



अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ॥२- ३६॥

अहित की कामना से बहुत ना बोलने लायक वाक्यों से तुम्हारे विपक्षी तुम्हारे सामर्थ्य की निन्दा करेंगें । इस से बढकर दुखदायी क्या होगा ॥



हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥२- ३७॥

यदि तुम युद्ध में मारे जाते हो तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा और यदि जीतते हो तो इस धरती को भोगोगे । इसलिये उठो, हे कौन्तेय, और निश्चय करके युद्ध करो ॥



सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥२- ३८॥

सुख दुख को, लाभ हानि को, जय और हार को ऐक सा देखते हुऐ ही युद्ध करो । ऍसा करते हुऐ तुम्हें पाप नहीं मिलेगा ॥



एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥२- ३९॥

यह मैने तुम्हें साँख्य योग की दृष्टी से बताया । अब तुम कर्म योग की दृष्टी से सुनो । इस बुद्धी को धारण करके तुम कर्म के बन्धन से छुटकारा पा लोगे ॥



नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥२- ४०॥

न इसमें की गई मेहनत व्यर्थ जाती है और न ही इसमें कोई नुकसान होता है । इस धर्म का जरा सा पालन करना भी महान डर से बचाता है ॥



व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥२- ४१॥

इस धर्म का पालन करती बुद्धी ऐक ही जगह स्थिर रहती है । लेकिन जिनकी बुद्धी इस धर्म में नहीं है वह अन्तहीन दिशाओं में बिखरी रहती है ॥



यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥२- ४२॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥२- ४३॥

हे पार्थ, जो घुमाई हुईं फूलों जैसीं बातें करते है, वेदों का भाषण करते हैं और जिनके लिये उससे बढकर और कुछ नहीं है, जिनकी आत्मा इच्छायों से जकड़ी हुई है और स्वर्ग जिनका मकस्द है वह ऍसे कर्म करते हैं जिनका फल दूसरा जनम है । तरह तरह के कर्मों में फसे हुऐ और भोग ऍश्वर्य की इच्छा करते हऐ वे ऍसे लोग ही ऐसे भाषणों की तरफ खिचते हैं ॥


भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥२- ४४॥

भोग ऍश्वर्य से जुड़े जिनकी बुद्धी हरी जा चुकी है, ऍसी बुद्धी कर्म योग मे स्थिरता ग्रहण नहीं करती ॥



त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥२- ४५॥

वेदों में तीन गुणो का व्यखान है । तुम इन तीनो गुणों का त्याग करो, हे अर्जुन । द्वन्द्वता और भेदों से मुक्त हो । सत में खुद को स्थिर करो । लाभ और रक्षा की चिंता छोड़ो और खुद में स्थित हो ॥



यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥२- ४६॥

हर जगह पानी होने पर जितना सा काम ऐक कूँऐ का होता है, उतना ही काम ज्ञानमंद को सभी वेदों से है ॥ मतलब यह की उस बुद्धिमान पुरुष के लिये जो सत्य को जान चुका है, वेदों में बताये भोग प्राप्ती के कर्मों से कोई मतलब नहीं है ॥



कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥२- ४७॥

कर्म करना तो तुम्हारा अधिकार है लेकिन फल की इच्छा से कभी नहीं । कर्म को फल के लिये मत करो और न ही काम न करने से जुड़ो ॥



योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥२- ४८॥

योग में स्थित रह कर कर्म करो, हे धनंजय, उससे बिना जुड़े हुऐ । काम सफल हो न हो, दोनो में ऐक से रहो । इसी समता को योग कहते हैं ॥



दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥२- ४९॥

इस बुद्धी योग के द्वारा किया काम तो बहुत ऊँचा है । इस बुद्धि की शरण लो । काम को फल कि इच्छा से करने वाले तो कंजूस होते हैं ॥



बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥२- ५०॥

इस बुद्धि से युक्त होकर तुम अच्छे और बुरे कर्म दोनो से छुटकारा पा लोगे । इसलिये योग को धारण करो । यह योग ही काम करने में असली कुशलता है ॥



कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥२- ५१॥

इस बुद्धि से युक्त होकर मुनि लोग किये हुऐ काम के नतीजों को त्याग देते हैं । इस प्रकार जन्म बन्धन से मुक्त होकर वे दुख से परे स्थान प्राप्त करते हैं ॥



यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥२- ५२॥

जब तुम्हारी बुद्धि अन्धकार से ऊपर उठ जाऐगी तब क्या सुन चुके हो और क्या सुनने वाला है उसमे तुमहें कोई मतलब नहीं रहेगा ॥



श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥२- ५३॥

ऐक दूसरे को काटते उपदेश और श्रुतियां सुन सुन कर जब तुम अडिग स्थिर रहोगे, तब तुम्हारी बुद्धी स्थिर हो जायेगी और तुम योग को प्राप्त कर लोगे ॥



अर्जुन बोले

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥२- ५४॥

हे केशव, जिसकी बुद्धि ज्ञान में स्थिर हो चुकि है, वह कैसा होता है । ऍसा स्थिरता प्राप्त किया व्यक्ती कैसे बोलता, बैठता, चलता, फिरता है ॥


श्रीभगवान बोले

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥२- ५५॥

हे पार्थ, जब वह अपने मन में स्थित सभी कामनाओं को निकाल देता है, और अपने आप में ही अपनी आत्मा को संतुष्ट रखता है, तब उसे ज्ञान और बुद्धिमता में स्थित कहा जाता है ॥



दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥२- ५६॥

जब वह दुखः से विचलित नहीं होता और सुख से उसके मन में कोई उमंगे नहीं उठतीं, इच्छा और तड़प, डर और गुस्से से मुक्त, ऐसे स्थित हुऐ धीर मनुष्य को ही मुनि कहा जाता है ॥



यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥२- ५७॥

किसी भी ओर न जुड़ा रह, अच्छा या बुरा कुछ भी पाने पर, जो ना उसकी कामना करता है और न उससे नफरत करता है उसकी बुद्धि ज्ञान में स्थित है ॥



यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥२- ५८॥

जैसे कछुआ अपने सारे अँगों को खुद में समेट लेता है, वैसे ही जिसने अपनी इन्द्रीयाँ को उनके विषयों से निकाल कर खुद में समेट रखा है, वह ज्ञान में स्थित है ॥


विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥२- ५९॥

विषयों का त्याग के देने पर उनका स्वाद ही बचता है । परम् को देख लेने पर वह स्वाद भी मन से छूट जाता है ॥



यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥२- ६०॥

हे कौन्तेय, सावधानी से संयमता का अभयास करते हुऐ पुरुष के मन को भी उसकी चंचल इन्द्रीयाँ बलपूर्वक छीन लिती हैं ॥



तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥२- ६१॥

उन सब को संयम कर मेरा धयान करना चाहिये, क्योंकि जिसकी इन्द्रीयाँ वश में है वही ज्ञान में स्थित है ॥



ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥२- ६२॥

चीजों के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उन से लगाव हो जाता है । इससे उसमे इच्छा पौदा होती है और इच्छाओं से गुस्सा पैदा होता है ॥



क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥२- ६३॥

गुस्से से दिमाग खराब होता है और उस से यादाश्त पर पड़दा पड़ जाता है । यादाश्त पर पड़दा पड़ जाने से आदमी की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट हो जाने पर आदमी खुद ही का नाश कर बौठता है ॥



रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥२- ६४॥

इन्द्रीयों को राग और द्वेष से मुक्त कर, खुद के वश में कर, जब मनुष्य विषयों को संयम से ग्रहण करता है, तो वह प्रसन्नता और शान्ती प्राप्त करता है ॥



प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥२- ६५॥

शान्ती से उसके सारे दुखों का अन्त हो जाता है क्योंकि शान्त चित मनुष्य की बुद्धि जलदि ही स्थिर हो जाती है ॥



नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥२- ६६॥

जो संयम से युक्त नहीं है, जिसकी इन्द्रीयाँ वश में नहीं हैं, उसकी बुद्धि भी स्थिर नही हो सकती और न ही उस में शान्ति की भावना हो सकती है । और जिसमे शान्ति की भावना नहीं है वह शान्त कैसे हो सकता है । जो शान्त नहीं है उसे सुख कैसा ॥



इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥२- ६७॥

मन अगर विचरती हुई इन्द्रीयों के पीछे कहीं भी लग लेता है तो वह बुद्धि को भी अपने साथ वैसे ही खीँच कर ले जाता है जैसे एक नाव को हवा खीच ले जाती है ॥



तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥२- ६८॥

इसलिये हे महाबाहो, जिसकी सभी इन्द्रीयाँ अपने विषयों से पूरी तरह हटी हुई हैं, सिमटी हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर होती है ॥



या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥२- ६९॥

जो सब के लिये रात है उसमें संयमी जागता है, और जिसमे सब जागते हैं उसे मुनि रात की तरह देखता है ॥



आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥२- ७०॥

नदियाँ जैसे समुद्र, जो एकदम भरा, अचल और स्थिर रहता है, में आकर शान्त हो जाती हैं, उसी प्रकार जिस मनुष्य में सभी इच्छाऐं आकर शान्त हो जाती हैं, वह शान्ती प्राप्त करता है । न कि वह जो उनके पीछे भागता है ॥



विहाय कामान्यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥२- ७१॥

सभी कामनाओं का त्याग कर, जो मनुष्य स्पृह रहित रहता है, जो मै और मेरा रूपी अहंकार को भूल विचरता है, वह शान्ती को प्राप्त करता है ॥



एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥२- ७२॥

ब्रह्म में स्थित मनुष्य ऍसा होता है, हे पार्थ । इसे प्राप्त करके वो फिर भटकता नहीं । अन्त समय भी इसी स्थिति में स्थित वह ब्रह्म निर्वाण प्राप्त करता है ॥


॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥

द्वारा : ही.विकिपेडिया.ओआरजी

श्रीमद्भगवद्गीता प्रथमोअध्यायः



श्रीपरमात्मने नमः

श्रीमद्भगवतगीता

अथ प्रथमोध्यायः

श्रीमद्भगवद्गीता की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्घ है। जिस प्रकार एक सामान्य मनुष्य अपने जीवन की समस्याओं में उलझकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और उसके पश्चात् जीवन के समरांगण से पलायन करने का मन बना लेता है। उसी प्रकार अर्जुन जो कि महाभारत का महानायक है अपने सामने आने वाली समस्याओं से भयभीत होकर जीवन और कर्मक्षेत्र से निराश हो गया है। अर्जुन की तरह ही हम सभी कभी-कभी अनिश्चय की स्थिति में या तो हताश हो जाते हैं और या फिर अपनी समस्याओं से उद्विग्न होकर कर्तव्य विमुख हो जाते हैं। भारत वर्ष के ऋषियों नें गहन विचार के पश्चात् जिस ज्ञान को आत्मसात् किया उसे उन्होंने वेदों का नाम दिया। इन्हीं वेदों का अंतिम भाग उपनिषद कहलाता है। मानव जीवन की विशेषता मानव को प्राप्त बौद्धिक शक्ति है और उपनिषदों में निहित ज्ञान मानव की बौद्धिकता की उच्चतम अवस्था तो है ही, अपितु बुद्धि की सीमाओं के परे मनुष्य क्या अनुभव कर सकता है यह हमारे उपनिषद् एक झलक दिखा देते हैं। उसी औपनिषदीय ज्ञान को महर्षि वेदव्यास ने सामान्य जनों के लिए गीता में संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया है। वेदव्यास की महानता ही है, जो कि 11 उपनिषदों के ज्ञान को एक पुस्तक में बाँध सके और मानवता को एक आसान युक्ति से परमात्म ज्ञान का दर्शन करा सके।


धृतराष्ट्र उवाच


धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। मामकाः पाण्डवाच्चैव किमकुर्वत संजय।।

धृतराष्ट्र बोले- हे संजय ! धर्मभूमि कुरूक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डुके पुत्रों ने क्या किया ? ।। 1।।

संजय उवाच

दृष्ट्रा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा। आचार्यमुपसडग्म्य राजा वचनमब्रवीत्।।

संजय बोले- उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा ।। 2।।

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूस्। व्यूढ़ां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।

हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्र द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डु पुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये।। 3।।

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि। युयुधानो विराटच्श्र द्रुपदच्श्र महारथः।।

धृष्टकेतुच्श्रेकितानः काशिराजच्श्र वीर्यवान्। पुरूजित्कुन्तिभोजच्श्र शैब्यच्श्र नरपुग्ङवः।।

युधामन्युच्श्र विक्रान्त उत्तमौजाच्श्र वीर्यवान्। सौभद्रो द्रौपदेयाच्श्र सर्व एव महारथाः।।

इस सेना में बड़े-बड़े धनुषोंवाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यिक और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान् काशिराज, पुरूजित्, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान् उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र- ये सभी महारथी हैं।। 4-6।।

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम। नायका मम सैन्यस्य सज्ज्ञार्थ तान् ब्रवीमि ते।।

हे ब्राह्मण श्रेष्ठ ! अपने पक्ष में जो भी प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिए। आपकी जानकारी के लिए मेरी सेना के जो-जो सेनापति हैं, उनको बतलाता हूँ।। 7।।

भवान् भीष्मच्श्र कर्णच्श्र कृपच्श्र समितिज्जयः। अश्वत्थामा विकर्णच्श्र सौमदत्तिस्तथैव च।।

आप- द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा।। 8।।

अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यत्तजीविताः। नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः।।

और भी मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकार के शास्त्रों से सुसज्जित और सब-के-सब युद्ध में चतुर हैं।। 9।।

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्। प्रर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाबिरक्षितम्।।

भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है।। 10।।

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः। भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि।।

इसलिए सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आपलोग सभी निःसन्देह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें।। 11।।

तस्य सज्जनयन् हर्ष कुरूवृद्धः पितामहः। सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख्ङ दध्मौ प्रतापवान्।।

कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के ह्रदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़के समान गरजकर शंख बजाया।। 12।।

ततः शंखाच्श्र भेर्यच्श्र पणवानकगोमुखाः। सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।।

इसके पश्चात् शंख और नगाडे़ तथा ढोल, मृदग्ङ और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।। 13।।

ततः श्र्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ। माधवः पाण्डवच्श्रैव दिव्यौ शन्खौं प्रदध्मतुः।।

इसके अन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाये।। 14।।

पाच्ञजन्यं ह्वषीकेसो देवदत्तं धनज्जयः। पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख्ङौ भीमकर्मा वृकोदरः।।

श्रीकृष्ण महाराज ने पाच्ञजन्य-नामक, अर्जुन ने देवदत्त नामक और भयानक कर्मवाले भीमसेन ने पौण्ड्र-नामक महाशंख्ङ बजाया।। 15।।

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। नकुलः सहदेवश्र्च सुघोषमणिपुष्पकौ।।

कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय-नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक-नामक शंख्ङ बजाये।। 16।।

काश्यश्र्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः। धृष्टद्युम्रो विराटश्र्च सात्यकिच्श्रापराजितः।।

द्रुपदो द्रौपदेयाश्र्च सर्वशः पृथिवीपते। सौभद्रश्र्च महाबाहुः शंखन्दध्मुः पृथक्पृथक्।।

श्रेष्ट धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यिक, राजा द्रुपद एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु- इन सभी ने, हे राजन् ! सब ओर से अलग-अलग शंख्ङ बजाये।। 17-18।।

स घोषो धार्तराष्ट्राणां ह्रदयानि व्यदारयत्। नभश्र्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्।।

और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुँजाते हुए धार्तराष्ट्रों के अर्थात् आपके पक्षवालों के ह्रदय विदीर्ण कर दिये।। 19।।

अथ व्यस्थितान्दृष्ट्रा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः। प्रवृत्ते शस्रसम्पाते धनुरूद्यम्य पाण्डवः।।

ह्रषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।

अर्जुन उवाच

सेनयोरूभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।।

हे राजन् ! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-सम्बन्धियों को देखकर, उस शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर ह्रषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा- हे अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीचमें खड़ा कीजिये।। 20-21।।

यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्दाकामानवस्थितान्। कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे।।

और जब तक कि मैं युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख लूँ कि इस युद्धरूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिये।। 22।।

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः। धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः।।

दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहनेवाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आये है, इन युद्ध करनेवालों को देखूँगा।। 23।।

संजय उवाच

एवमुक्तो ह्रषीकेशो गुडाकेशेन भारत। सेनयोरूभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्।।

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्। उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति।।

संजय बोले- हे धृतराष्ट्र ! अर्जुनद्वारा इस प्रकार कहने पर, महाराज श्रीकृष्णचन्द्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके इस प्रकार कहा कि हे पार्थ ! युद्ध के लिये जुटे हुए इन कौरवों को देख।। 24-25।।

तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान्। आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।। श्र्वशुरान् सुह्रदश्र्चैव सेनयोरूभयोरपि।

इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ-चाचाको, दादों-परदादोंको, गुरूओंको, मामाओंको, भाइयोंको, पुत्रोको, पौत्रोंको तथा मित्रोंको, ससुरोंको और सुह्रदोंको भी देखा।। 26।। और 27 वें का पूर्वार्ध।।

तान् समीक्ष्य स कौन्तेयःसर्वान् बन्धूनवस्थितान्।। कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।

उन उपस्थित सम्पूर्ण बन्धुओं को देखकर वे कुन्तीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करूणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले।। 27वेंका उत्तरार्ध और 28वेंका पूर्वार्ध।।

अर्जुन उवाच

दृष्टेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।। सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।

वेपथुश्र्च शरीरे में रोमहर्षश्र्च जायते।।

अर्जुन बोले- हे कृष्ण ! युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजनसमुदाय को देखकर मेरे अग्ङ शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमान्च हो रहा है।। 28 वेंका उत्तरार्ध और 29।।

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्मते। न च शक्रोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च में मनः।।

हाथसे गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है, इसलिए मै खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ।। 30।।

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव। न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।

हे केशव ! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदायको मारकर कल्याण भी नहीं देखता।। 31।।

न काङक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च। किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ।।

हे कृष्ण ! मै न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखोंको ही। हे गोविन्द ! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है ? ।। 32।।

येषामर्थे काङिक्षतं नो राज्यं भोगाः सुखानि च। त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।।

हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट है, वे ही ये सब धन और जीवनकी आशाको त्यागकर युद्धमें खड़े हैं।। 33।।

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः। मातुलाः श्र्चशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।।

गुरूजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग है।। 34।।

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्रतोऽपि मधुसूदन। अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।।

हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए कहना ही क्या है ? ।। 35।।

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन। पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः।।

हे जनार्दन ! धृतराष्ट्र के पुत्रोंको मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा।। 36।।

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान्। स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।

अतएव हे माधव ! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं, क्योकिं अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे ? ।। 37।।

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः। कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्। कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्धिर्जनार्दन।।

यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोषको और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन ! कुल के नाशसे उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिये क्यों नहीं विचार करना चाहिए ? ।। 38-39।।

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः। धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्रमधर्मोऽभिभवत्यतु।।

कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है।। 40।।

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यति कुलस्रियः। स्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंक्ङरः।।

हे कृष्ण ! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय ! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंक्ङर उत्पन्न होता है।। 41।

संक्ङरो नरकायैव कुलघ्रानां कुलस्य च । पतन्ति पितरो ह्वोषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।

वर्णसंक्ङर कुलघातियों को कुल को नरक में ले जाने के लिए हीहोता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पणसे वञ्चित इनके पितरलोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं।। 42।।

दोषैरेतैः कुलघ्रानां वर्णसंक्ङरकारकैः। उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्र्च शाश्र्वताः।।

इन वर्णसंक्ङरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं।। 43।।

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्यणां जनार्दन। नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।।

हे जनार्दन ! जिनका कुल धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित कालतक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं।। 44।।

अहो बत महत्पापं कर्तु व्यवसिता वयम्। यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।

हा ! शोक ! हमलोग बुद्धिमान होकर भी महान् पाप करने को तैयार हो गया हैं, जो राज्य और सुख के भोग से स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो गये हैं।। 45।।

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः। धार्तराष्टा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।।

यदि मुझ शस्त्ररहति एवं सामना न करने वाले को धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा।। 46।।

संजय उवाच

एवमुक्त्वार्जुनः सड़्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्। विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्रमानसः।।

संजय बोले- रणभूमि में शोक से उद्विग्र मनवाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गये।। 47।।

ૐ तत्सदिति श्रीमद्भगवतगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोअध्यायः।। 1।।

द्वारा : ही.विकिपेडिया.ओआरजी

भगवद्‌गीता

भगवद्‌गीता हिन्दू धर्म की पवित्रतम ग्रन्थों में से एक है । श्री कृष्ण ने गीता का सन्देश पाण्डव राजकुमार अर्जुन को सुनाया था । ये एक स्मृति ग्रन्थ है । इसमें एकेश्वरवाद की बहुत सुन्दर ढंग से चर्चा हुई है।

श्रीमद्भगवद्‌गीता की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्घ है। जिस प्रकार एक सामान्य मनुष्य अपने जीवन की समस्याओं में उलझकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और उसके पश्चात् जीवन के समरांगण से पलायन करने का मन बना लेता है। उसी प्रकार अर्जुन जो कि महाभारत का महानायक है अपने सामने आने वाली समस्याओं से भयभीत होकर जीवन और कर्मक्षेत्र से निराश हो गया है। अर्जुन की तरह ही हम सभी कभी-कभी अनिश्चय की स्थिति में या तो हताश हो जाते हैं और या फिर अपनी समस्याओं से उद्विग्न होकर कर्तव्य विमुख हो जाते हैं। भारत वर्ष के ऋषियों नें गहन विचार के पश्चात् जिस ज्ञान को आत्मसात् किया उसे उन्होंने वेदों का नाम दिया। इन्हीं वेदों का अंतिम भाग उपनिषद कहलाता है। मानव जीवन की विशेषता मानव को प्राप्त बौद्धिक शक्ति है और उपनिषदों में निहित ज्ञान मानव की बौद्धिकता की उच्चतम अवस्था तो है ही, अपितु बुद्धि की सीमाओं के परे मनुष्य क्या अनुभव कर सकता है यह हमारे उपनिषद् एक झलक दिखा देते हैं। उसी औपनिषदीय ज्ञान को महर्षि वेदव्यास ने सामान्य जनों के लिए गीता में संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया है। वेदव्यास की महानता ही है, जो कि 11 उपनिषदों के ज्ञान को एक पुस्तक में बाँध सके और मानवता को एक आसान युक्ति से परमात्म ज्ञान का दर्शन करा सके।
द्वारा : ही.विकिपेडिया.ओआरजी